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साहब, भारत इसी तरह तो चलता है

yunhi dil se
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वैसे तो भारत में राहुल गांधी जी के विचारों से बहुत कम लोग इत्तेफाक रखते हैं (यह बात 2014 के चुनावी नतीजों ने जाहिर कर दी थी)। मगर अमेरिका में बर्कले स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में जब उन्होंने वंशवाद पर पूछे गए एक सवाल के जवाब में ‘भारत इसी तरह चलता है’ कहा, तो सत्तारूढ़ भाजपा और कुछ खास लोगों ने भले ही उनके इस कथन का विरोध किया हो, लेकिन देश के आम आदमी को शायद इसमें कुछ भी गलत नहीं लगा होगा। काबिले तारीफ बात यह है कि वंशवाद को स्वयं भारत के एक नामी राजनैतिक परिवार के व्यक्ति ने अन्तरराष्ट्रीय मंच पर बड़ी साफगोई के साथ स्वीकार किया, क्या यह एक छोटी बात है?


यूँ तो हमारे देश में वंश या ‘घरानों’ का अस्तित्व शुरू से था, लेकिन उसमें परिवारवाद से अधिक योग्यता को तरजीह दी जाती थी। जैसे संगीत में ग्वालियर घराना, किराना घराना, खेलों में पटियाला घराना, होलकर घराना, रंजी घराना, अलवर घराना आदि, लेकिन आज हमारा समाज इसका सबसे विकृत रूप देख रहा है।


अभी कुछ समय पहले उप्र के चुनावों में माननीय प्रधानमंत्री को भी अपनी पार्टी के नेताओं से अपील करनी पड़ी थी कि नेता अपने परिवार वालों के लिए टिकट न मांगें। लेकिन पूरे देश ने देखा कि उनकी इस अपील का उनकी अपनी ही पार्टी के नेताओं पर क्या असर हुआ। आखिर पूरे देश में ऐसा कौन सा राजनैतिक दल हैद्व जो अपनी पार्टी के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले एक साधारण से कार्यकर्ता को टिकट देने का जोखिम उठाता है?


क्या यह सही नहीं है कि आज भी एक साधारण या निम्न परिवार के किसी भी नौजवान के लिए किसी भी क्षेत्र के सिंडीकेट को तोड़कर सफलता प्राप्त करना इस देश में आम बात नहीं है? क्योंकि अगर ये आम बात होती, तो ऐसे ही किसी युवक या युवती की सफलता अखबारों की हेडलाडन क्यों बन जाती हैं कि एक फल बेचने वाले के बेटे या बेटी ने फलाँ मुकाम हासिल किया?


क्या वाकई में एक आम प्रतिभा के लिए और किसी ‘प्रतिभा’ की औलाद के लिए, हमारे समाज में समान अवसर मौजूद हैं? क्या कपूर खानदान के रणबीर कपूर और बिना गॉडफादर के रणवीर सिंह या नवाजुद्दीन सिद्दीकी जैसे किसी नॉन फिल्मी बैकग्राउंड वाले लड़के या लड़की को फिल्मी दुनिया में समान अवसर प्राप्त हैं? क्या अभिषेक बच्चन को भी अमिताभ बच्चन जितना संघर्ष अपनी पहली फिल्म के लिए करना पड़ा था?


भले ही कल भारत वो देश था, जहाँ राजा भरत ने अपने नौ पुत्रों के होते हुए भी अपना उत्तराधिकारी अपनी प्रजा के एक सामान्य युवक भूमन्यू को बनाया, क्योंकि उन्हें अपने बाद अपने देश और प्रजा की चिंता अपने वंश से अधिक थी। मगर आज का कटु सत्य तो यही है कि हमारे समाज में आज हर क्षेत्र में आपकी तरक्की आपकी प्रतिभा से नहीं आपकी पहचान से होती है। आपकी योग्यता और बड़ी-बड़ी डिग्रियां बड़े-बड़े नामों से हार जाती हैं। आगे बढ़ने के लिए  ‘बस नाम ही काफी है ‘।


शेक्‍सपीयर ने बरसों पहले कहा था कि “नाम में क्या रखा है” लेकिन सच्चाई यह है कि नाम अगर भारत देश में गाँधी हो, मध्यप्रदेश या राजस्थान में सिंधिया हो, पंजाब में बादल हो, यूपी और बिहार में यादव हो, महाराष्ट्र में ठाकरे हो, कश्मीर में अब्दुल्ला या मुफ्ती मुहम्मद हो, हरियाणा में चौटाला हो ( लिस्ट बहुत लम्बी है) तो इंसान के नसीब ही बदल जाते हैं।


नाम की बात जीवित इंसानों तक ही सीमित हो ऐसा भी नहीं है। अभी हाल ही में अन्नाद्रमुक ने अपनी ताजा बैठक में दिवंगत जयललिता को पार्टी का स्थायी महासचिव बनाने की घोषणा की। यानी कि वे मृत्यु के उपरांत भी पार्टी का नेतृत्व करेंगी। संभवतः दुनिया में मरणोपरांत भी किसी पार्टी का नेतृत्व करने की इस प्रकार की पहली घटना का साक्षी बनने वाला भारत पहला देश है और जयललिता पहली नेता।


कदाचित यह वंशवाद केवल राजनीति में ही हो ऐसा भी नहीं है। कला, संगीत, सिनेमा, खेल, न्यायपालिका, व्यापार, डाक्टरों हर जगह इसका अस्तित्व है। सिनेमा में व्याप्त वंशवाद के विषय में कंगना बोल ही चुकी हैं।


देश में चलने वाले सभी प्राइवेट अस्पतालों को चलाने वाले डाॅक्टरों के बच्चे आगे चलकर डाॅक्टर ही बनते हैं। क्या आज डाॅक्टरी सेवा कार्य से अधिक एक पारिवारिक पेशा नहीं बन गया है? क्या इन अस्पतालों को चलाने वाले डाॅक्टर अस्पताल की विरासत अपने यहाँ काम करने वाले किसी काबिल डाॅक्टर को देते हैं ? जी नहीं, वो काबिल डाॅक्टरों को अपने अस्पताल में नौकरी पर रखते हैं और अपनी नाकाबिल संतानों को डाॅक्टर की डिग्री व्यापम से दिलवा देते हैं।


आज जितने भी प्राइवेट स्कूल हैं वो शिक्षा देने के माध्यम से अधिक क्या एक खानदानी पेशा नहीं बन गए हैं? इनकी विरासत मालिक द्वारा क्या अपने स्कूल के सबसे योग्य टीचर को दी जाती है या फिर अपनी औलाद को? क्या न्यायपालिका में कोलेजियम द्वारा जजों की नियुक्ति परिवारवाद और भाई भतीजावाद के आधार पर नहीं होती?


जब वंशवाद और परिवारवाद के इस तिलिस्म को तोड़कर एक साधारण से परिवार का व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट का जज बनता है या फिर कोई अब्दुल कलाम राष्ट्रपति बनता है। कोई चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री बनता है या  फिर स्मृति ईरानी मानव संसाधन मंत्री बनी थीं या फिर निर्मला सीतारमन रक्षा मंत्री बनती हैं, तो वो हमारे न्यूज़ चैनलों की ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ बन जाती है, यही सच्चाई है।

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